( जून , २००४ )। भारत में चुनाव आता है तो धनतंत्र की स्थिति देखकर मन में एक प्रकार की मायूसी आती है । क्या इस चक्रव्यूह का भेदन किया जा सकता है ? कभी भेद लेंगे तो सही सलामत लौट भी पायेंगे ? मूलभूत परिवर्तन के विचारों की उड़ान कुछ क्षण के लिए थम जाती है ।
दूसरी भावना यह भी आती है कि पाकिस्तान में हमारी जैसी प्रजातांत्रिक व्यवस्था होती तो वहीं के लोगों को अच्छा लगता । प्रजातंत्र के न रहने से बेहतर है एक लूला – लँगड़ा प्रजातंत्र । प्रजातंत्र में विश्वास न रखनेवालों के लिए भी वहाँ जगह होगी ।
इस भावना को हम ज्यादा नहीं खींच सकते हैं । कोई पूछ सकता है कि अगर क्यूबा में साम्यवादी व्यवस्था के स्थान पर भारत जैसी पूँजीवादी-प्रजातांत्रिक व्यवस्था आ जाएगी , तो क्या वह स्वागत योग्य है ? हमारा उत्तर सकारात्मक नहीं होगा । हम कहेंगे कि क्यूबा के लोग अपने आर्थिक समाज में विषमताओं को बढ़ाए बगैर प्रजातंत्र का नया ढाँचा सृजित करें।
इस नए ढाँचे को तलाशने के लिए बीसवीं सदी के मध्य में काफ़ी गहमा – गहमी थी । न सिर्फ़ राजनीति में , बल्कि विश्वविद्यालयों के विद्वानों में भी अच्छी खासी चर्चा हो जाती थी । चालीस के दशक में ब्रिटेन का प्रो. हेराल्ड जे. लास्की राजनीतिशास्त्र का मूर्धन्य विद्वान था । व्यक्ति स्वातंत्र्य और आर्थिक समानता के बीच के द्वन्द्व को लास्की ने ’ अपने समय का सबसे बड़ा विरोधाभास’ के रूप में देखा । इस विरोधाभास का विवेचन करने के लिए उसने एक ग्रंथ लिखा । लास्की खुद ब्रिटेन के श्रमिक दल का सक्रिय सदस्य था , तब श्रमिक दल का वैचारिक आधार समाजवाद था ।
भारत के समाजवादी दल (सोशलिस्ट पार्टी) ने भी भारत के लिए एक समतामूलक प्रजातांत्रिक संविधान लिखने की कोशिश की थी । उन्हीं दिनों भारत की संविधान सभा की बहस में डॉ. अम्बेडकर ने ’ आर्थिक लोकतंत्र ’ की अवधारणा के बारे में एक महत्वपूर्ण वक्तव्य रखा था ।
बाद के समय में यूरोप तथा भारत में धनतंत्र की मजबूती इतनी बढ़ी है कि उपरोक्त बहस को न राजनीति में , न विश्वविद्यालयों में कोई महत्व दिया जा रहा है । मानो इस विषय की प्रासंगिकता खत्म कर दी गई । यूरोप में लास्की के समकक्ष जो विद्वान हैं और समाज विज्ञान की महान हस्तियाँ माने जाते हैं , वे सब ’ विचारधारा की समाप्ति ’ के पक्षधर लगते हैं । उनके विचारों में इतनी उड़ान नहीं है कि अमरीकी आधिपत्यवाली विश्वव्यवस्था का कोई विकल्प तलाश करें । भारत के विद्वानों ने तो जैसे कसम खा ली है कि मूलभूत और व्यापक सिद्धान्तों को ईजाद करना उनका काम नहीं महाशक्तियों का है । जिसके पास आधुनिकतम हथियार होंगे और सबसे अधिक धन होगा , ज्ञान का वितरण वही करेगा । हमारे चिन्तन का एक औपनिवेशिक दायरा होगा ।
यानी , प्रजातंत्र की संरचना और स्वरूप में बुनियादी बदलाव का सपना इस समय के राजनीतिक समूहों और समाज वैज्ञानिकों में नहीं है । भारतीय विद्वान ज्यादा से ज्यादा चुनाव सुधार की बात कर लेते हैं , या कभी – कभी राष्ट्रपति प्रणाली बनाम प्रधानमंत्री प्रणाली की बचकानी बहस करते हैं । संवैधानिक उपाय से धनतंत्र को नियंत्रित किए बगैर , राजनीतिक प्रणाली में परिवर्तन लाये बगैर चुनाव सुधार का भी कोई परिणाम नहीं निकलने वाला है । अन्यथा अपनी सामर्थ्य की भीतर चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार की कई कोशिशें की हैं । भारत के संविधान में धनतंत्र को मर्यादित करने का जो भी हल्का प्रावधान था , ग्लोबीकरण और उदारीकरण के दर्शन को अपनाकर उसको अप्रभावी कर दिया गया है । इससे भारतीय प्रजातंत्र और राजनीति पर गहरा नकारात्मक असर हुआ है ।
( जारी )
आदरणीय अफ़लातून जी,
मेरे ब्लॉग “हमसफ़र यादों का…….” पर पधारने तथा मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद, चलिए इसी बहाने आपके ब्लॉग से परिचय हो गया। अभी ब्लॉग जगत में नया हूँ, अतः आपके सभी लेख नहीं पढ़ पाया हूँ परन्तु जो भी पढ़े सब एक नई आशा नए समाज का सृजन करने वाले हैं। पधारते रहिएगा। पुनःश्च धन्यवाद!!!
जो मुद्दे यहाँ उठाए गए हैं सभी विचारणीय हैं। भारतीय प्रजातंत्र भारत की जरूरतों के अनुसार होना चाहिए। भारत में समाजिक विषयों पर चिन्तन कम ही होता है। भारतीय विद्वानों को भी मह्त्व तभी मिलता है जब वह भारत भूमि से बाहर जाकर विदेश में अपनी पहचान बना लें।
घुघूती बासूती
This is a very good essay
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